निभाना है हर रिश्ता , चाहे मन से हो या बेमन
कितने रूपों में उसने , स्वयं को बंटा पाया है
बेटी ,बहन ,पत्नी, बहू ,मां की उपाधि को अपनाया है
है उसका भी अपना वजूद
शायद उसे भी ये याद नहीं
सबका मन रखते रखते
बीत जाती है उसकी उम्र यूंही
भावनाओं का अथाह सागर
उसके मन में पलता है
परिवार रूपी दिये में
बाती की तरह उसका जीवन जलता है
कई अरमानों कई सपनों को , सीने में दफन करती है
फिर भी मर्द कहता है "तू दिनभर घर में क्या करती है ?"
कभी संभालना नींद खो कर, अपने बच्चों का रुदन
खुद भूखा रहकर बनाना , सबके लिए तरह तरह के व्यंजन
सहना उलाहने , बिना करे कोई गलती और गड़बड़
सुनना पति के ताने और सास ननद की बड़बड़
इतना होने के बाद भी जब निकलती है घर से ,
ओढ़ती है पल्लू गरिमामई मुस्कान के साथ
क्योंकि परिवार की सारी इज्जत ,
होती है घर की स्त्री के हाथ
धरती से भी ज्यादा धीरज है उसमें
आसमान से भी ज्यादा सब्र विशाल
जो संभाले मर्द को और उसके हर दर्द को
उस स्त्री को दुनिया कैसे न कहे महान
प्रेरणा अरोड़ा