एक पर्व है उल्लास का
एक पर्व है आस का
यह पर्व है पतंग का
यह पर्व है उड़ान का
हूँ मैं एक लड़की ,एक स्त्री ,एक महिला
जो चाहती है उड़ना एक पतंग की तरह
खुले आसमान में
पूछा था मां से क्या मैं भी उड़ सकती हूं इस तरह
माँ ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा और समझाया
एक लड़की बंधी होती है परंपराओं की बेड़ियों से
बहुत से संस्कारों से
जैसे पतंग भी बंधी होती है डोर से
क्यों ?? मैंने पूछा सवाल
मन था बहुत अबोध, पर सवाल था ज्वलंत
मां ने धीमी मुस्कान से गोद में बैठाया
बड़े प्यार से सहलाया और समझाया
पतंग जब उड़ती है उन्मुक्त आसमान में
तो भाती है सभी के मन को
पर वह नहीं जानती कि
कई छतों पर बैठे हैं पतंग बाज
गड़ाए हुए हैं नजरें उस पर
ताकि उसे काट सके ,लूट सके
इसीलिए उसे बांधा गया है डोर से
ताकि जब भी कुछ गलत होता दिखे
तो उस की डोर उसे मोड़ ले और बचा ले उसको
यह डोर बंधन नहीं है , यह है उसका सुरक्षा कवच
इसी तरह जब भी कोई लड़की
चाहती है उन्मुक्त आकाश
पंख फैलाकर नापना चाहती है गगन
तो कुछ महीन बेड़ियां उसे बांधे रखती है
उसे साधे रखती है
ताकि कोई लूट ना ले उसको
काट ना दे उसको
हर परंपरा हर नियम के पीछे छुपा होता है
प्यार और उसको सहेजने , संभालने का भाव
प्रेरणा अरोड़ा